Wednesday, 16 December 2015

कुर्मी क्षत्रिय



एक बड़ा प्रश्न जिसका जवाब हमें ही देना है कि क्या  है ???    यदि क्षत्रिय है तो इन लोगो के रीति – रिवाज एवं व्यापार –उद्योग अन्य क्षत्रियों जैसे क्यों नहीं है? कुर्मी जनेऊ धारण क्यों नहीं करते ? कुर्मी कृषि जैसा काम क्यों करते है तथा आज के युग के अन्य क्षत्रियों के साथ रोटी –बेटी का व्यवहार क्यों नहीं रखते?  इसका अर्थ कुर्मी क्षत्रिय नहीं किसी अन्य वर्ण के हैं उपरोक्त प्रश्न २६ मई १९०६ में काशी के पंडित मदन मोहन पाठक ने एक सभा में भाषण में किये थे .  

 
जनेऊ के आधार मानकर कहना कि कुर्मी क्षत्रिय नहीं है गलत है क्योकि मुस्लिम शासनकाल में बड़े-बड़े शमशेर बहादुर क्षत्रियों ने अपनी तलवारें म्यान में डाल कर खेती करना चालू कर दिया था एवं समर्थ पंडितो ने भी प्राणों को बचाने के लिए उपवीत उतार कर उसे पगड़ी में छिपा दिया था ऐसी कई जातियों ने समय की गंभीरता को समझते हुए कर्तव्यों को कुछ काल के लिए छोड़ दिया था और कई जातिया आज भी बिना जनेऊ के रहती है लेकिन वर्तमान में क्षत्रिय मानी जाती जातिया शास्त्रोक्त कर्म करते समय (यज्ञ ,लग्न,श्राद्ध) अल्प कल के लिया जनेऊ धारण करती है उसी प्रकार कुर्मी जातिभी करती है अतः कुर्मी जाति पर क्षत्रिय न होने का आक्षेप इस आधार पर नहीं आ सकता 




 History of Sachan
सारे भारत में फैले हुए कुर्मी -क्षत्रियों की शाखाओ का उल्लेख निम्न प्रशस्ति काव्य से मिलती है .इस कविता में ३३ शाखाओ का निर्देश होता है .
              ( यह पंक्तिया कुर्मी क्षत्रिय हितैसी पत्रिका में सन 1912 के चौदहवे अंक में छपी थी )
           कुर्मवंश कुशवंश राना व पंवार आदि ,
          ठाकुर चंदेल गुजराती जैसवार है /
                                                  घोड़चडे सिंगरौर कान्यकुब्ज कच्छवाह ,
                                                  और सेंगर सोलंकी यदुवंश सैठवार है /
          कुर्मकुल लववंश तैलंग मैंराल आंध्र ,
         कुर्मर चंदेरी चंदनीय कटियार है /
                                                       वैसवास वंशवार औधिया सचान
                                                       और चौधरी चौहान राजपूत परुवार है /
 इतिहास कल्पना , स्वप्नदर्शन या मनोरंजन का विषय नहीं है इतिहास में जीवन दर्शन कराने की क्षमता होती है उज्जवल भविष्य के लिए श्रेष्ठ मार्गदर्शन इतिहास से ही प्राप्त होता है यही कारण है कि सभी समाज इतिहास लेखन पर जोर दे रहे है अब तो इतिहास विहीनो का भी इतिहास लिखा जा रहा है इतिहास ही समाज की विकासगाथा है कहते हैं कि जिस कौम के पास अपने बुद्धपुरुषों का इतिहास नहीं उसका अस्तित्व ज्यादा समय तक कायम नहीं रहता।
आज के समय को देखते हुए कुछ बुद्धिजीवीयों के मन में विचार आ सकता है की भारत में लोकतान्त्रिकढंग से पुरे समाज को एक जुट करने का प्रयास किया जा रहा है ऐसे समय में किसी जातीय इतिहास को महत्व देने की क्या आवश्यकता है ..उन्हें ये बात समझ लेनी चाहिए की आज तक जितने भी आन्दोलन व समाज सुधार कार्य हुए वे जाति उच्छेद भावना से नहीं बल्कि समाज में परिवर्तन लाने के लिए हुए हैं आज हम आधुनिकता की बहस करते है मगर हकीकत ये है की आज भी हम जातियों के बीच ही जी रहे है जाति व्यवस्था भी अपनी संस्कृति का एक अंग है भारत के संस्कृति अनेकता में एकता रही है आज भारत की हर जाति के पास अपना इतिहास है अपने उद्गम व अपने विकास को लेकर हर समाज अपने को गौवान्तित अनुभव करता है अपने गौरवशाली इतिहास से प्रत्येक व्यक्ति प्रेरणा लेता है। इतिहास में घटित भूलों को न दोहराने का, उनसे बचने का प्रयास करता है। यही इतिहास का महत्त्व है। जिस समाज का इतिहास दिव्य होता है उस समाज का भविष्य भव्य, उज्ज्वल होता है। हमारे सचान  समाज के पास भी अपना इतिहास था और है  लेकिन इतिहास लेखन में रूचि ना होने के कारण सचान समाज का इतिहास लुप्त होता जा रहा है सचान समाज के लोगो ने अंग्रेजो से लोहा लेने से लेकर समाज सुधार व अच्छे प्रशाशक सहित बहुत से सराहनीय कार्य किये है लेकिन समाज की गौरव गाथा सिर्फ मौखिक ही रही है किसी ने भी लेखनी से प्रस्तुत नहीं किया इस कारण इतिहास लुप्त सा होता प्रतीत हो रहा है लेकिन अभी लुप्त नहीं हुआ है
              उत्तर प्रदेश में हमारा इतिहास  लगभग ३०० वर्ष पुराना है और हमारा अतीत गुजरात के अहमदाबाद के पास के  दो राजवंश वीरमगाम और पाटडी से जुड़ा हुआ है जैसा कि हम जानते है सन 1674 में छत्रपति शिवाजी (1630-1680) के नेतृत्व में हिंदू पद पादशाही का उदय हुआ  और उनके सरदार  और   शिवाजी के उत्तराधिकारी -शम्भाजी, राजाराम, शिवाजी द्वितीय और शाहूजी ने मराठा राज्य का संचालन किया। उनके बाद पेशवाओं की प्रधानता मराठा राज्य में कायम हो गई। शिवाजी के सरदारों ने वीरमगाम और पाटडी यह दोनों राजवंशो को अपने आधिपत्य में कर लिया था और अब उन सरदारों कि निगाह अहमदाबाद में थी . सन 1753  में गुजरात मराठा और मुसलमान दोनों शासन करते थे गुजरात में बाबीजवांमर्दा खां का जोर था और अहमदाबाद उसके कब्जे में था . पेशवा के इशारे पर राघोबा पंडित (राघोबा जिसे 'रघुनाथराव' के नाम से भी जाना जाता है, द्वितीय पेशवा बाजीराव प्रथम का द्वितीय पुत्र था, जो एक कुशल सेना नायक था। अपने बड़े भाई बालाजी बाजीराव के पेशवा काल में उसने होल्कर के सहयोग से उत्तरी भारत में बृहत सैनिक अभियान चलाया था। रघुनाथराव अपने भतीजे माधवराव को पेशवा बनाने के ख़िलाफ़ था। माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद नारायणराव पेशवा हुआ, लेकिन रघुनाथराव ने उसकी हत्या करवा दी। अपने जीवन के अंतिम दिन उसने अंग्रेज़ों की पेंशन पर आश्रित रहकर व्यतीत किए थे। अमृतराव रघुनाथराव (राघोबा) का दत्तक पुत्र था, जो पेशवा बाजीराव प्रथम का दूसरा पुत्र था। ) ने अहमदाबाद के चारो तरफ घेरा दल दिया लेकिन चार महीने तक कोई सफलता नहीं मिली तब राघोबा ने पाटडी के  देसाईयो को बुलाया इस पर देसाई नाथूभाई को लेकर भूखणदास तथा जेठाभाई  अहमदाबाद आये और अपनी कार्य दक्षता से पेशवा और बाबीजवांमर्दा खां में समझौता करा दिया बाबीजवांमर्दा खां को बडनगर ,बिसनगर,पारण ,खेरालू और राघनपुर गांव लेने  को राजी किया और बदले में अहमदाबाद पेशवा को दिलाया . पेशवा उनके इस बीच बचाव से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सचाणा गांव की जागीर देसाई भूखणदास को और मांडल गांव की जागीर जेठाभाई को उपहार स्वरुप दे दी और सचाणा गांव के सैनिक जो पेशवा के विश्वास पात्र थे उनको  मराठा सरदार जो राजस्थान में अपने राज्य विस्तार में लगे हुए थे के पास भेज दिया
 सन १७०७ में औरंगजेब के अंत  के बाद बाजीराव पेशवा प्रथम  ( 1721-1740) व उसके बाद बाजीराव प्रथम का पुत्र बालाजी बाजीराव (1740-1761) के नेतृत्व में मराठा सरदारों ने उत्तर भारत में हिंदू साम्राज्य का विस्तार किया उनके सरदारों  थे शिंदे (ग्वालियर के राणोजी सिंधिया ) , धार के आनंद राव पवार, देवास के तुकोजीराव पवार  ,इंदौर के मल्हार राव  होलकर  यह मराठा साम्राज्य के प्रतिनिधि की तरह शाशन करते थे सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में जब मराठों का सूर्य समूचे भारत में चमक रहा था , मराठों ने राजस्व बढ़ाने के लिए कुछ नए कर लगाए और व्यवस्थित रूप से उस पर अमल कराया।  इस वसूली के जरिये पड़ौसी राज्यों को सुरक्षा का भरोसा दिलाते थे। सत्रहवीं सदी में छत्रपति शिवाजी ने अपने अधीन और पड़ौसी राज्यों से इस कर की वसूली शुरूवात  की थी जिसके तहत कुल लगान का चौथा हिस्सा मराठा साम्राज्य के खजाने में जाता था । इसे ही चौथ कहा जाता था। मुस्लिम साम्राज्य के खिलाफ स्वराज्य के संघर्ष में होने वाले खर्च की पूर्ति के लिए वे इस चौथ वसूली को जायज़ मानते थे।1735 इस्वी में राजपूताने की समस्त बड़ी रियासतों ने पेशवा को चौथ देना स्वीकार कर लिया। इनमें जोधपुर रियासत भी सम्मिलित थी। यही वह समय था जब राजपूताना की रियासतों में मराठों के प्रतिनिधि स्थाई रूप से रहने लगे और रियासत की गतिविधियों  तिल-तिल की सूचना मराठों तक पहुँचाने लगे। सचाणा के सैनिक   राजस्थान के राजपूतो व विदोशियो से मराठा साम्राज्य के लिए चौथ वसूली  व युद्ध के समय सैन्य अभियान का हिस्सा बना करते थे   इस समय उत्तर भारत में सिक्ख और दक्षिण भारत  में मराठों की शक्ति बहुत  तेजी से बढ़ रही थी । हालांकि इस दौरान आपसी मतभेदों व निजी स्वार्थों के कारण भारत अस्थिरता का शिकार था और विदेशी आक्रमणकारियों के निशाने पर था। इससे पूर्व नादिरशाह व अहमदशाह अब्दाली कई बार आक्रमण कर चुके थे और भयंकर तबाही के साथ-साथ भारी धन-धान्य लूटकर ले जा चुके थे।
सन् 1747 में अहमदशाह अब्दाली नादिरशाह का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। अहमदशाह अब्दाली ने अगले ही वर्ष 1748 में भारत पर आक्रमण की शुरूआत कर दी। 23 जनवरी, 1756 को चौथा आक्रमण करके उसने कश्मीर, पंजाब, सिंध तथा सरहिन्द पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। वह अप्रैल, 1757 में अपने पुत्र तैमुरशाह को पंजाब का सुबेदार बनाकर स्वदेश लौट गया। इसी बीच तैमूरशाह ने अपने रौब को बरकरार रखते हुए एक सम्मानित सिक्ख का घोर अपमान कर डाला। इससे क्रोधित सिक्खों ने मराठों के साथ मिलकर अप्रैल, 1758 में तैमूरशाह को देश से खदेड़ दिया। जब इस घटना का पता अहमदशाह अब्दाली को लगा तो वह इसका बदला लेने के लिए एक बार फिर भारी सैन्य बल के साथ भारत पर पाँचवां आक्रमण करने के लिए आ धमका। उसने आते ही पुन: पंजाब पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इस घटना को मराठों ने अपना अपमान समझा और इसका बदला लेने का संकल्प कर लिया। पंजाब पर कब्जा करने के उपरांत अहमदशाह अब्दाली ने  रूहेला   अवध नवाब के सहयोग से दिल्ली की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। उसने 1 जनवरी, 1760 को बरारघाट के नजदीक दत्ता जी सिन्धिया को युद्ध में परास्त करके मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद उसने 4 मार्च, 1760 को मल्हार राव होल्कर व जनकोजी आदि को भी युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया
अहमदशाह के निरन्तर बढ़ते कदमों को देखते हुए मराठा सरदार पेशवा ने उत्तर भारत में पुन: मराठा का वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपने शूरवीर यौद्धा व सेनापति सदाशिवराव भाऊ को तैनात किया और इसके साथ ही अपने पुत्र विश्वास राव को प्रधान सेनापति बना दिया। सदाशिवराव भाऊ भारी सैन्य बल के साथ 14 मार्च, 1760 को अब्दाली को सबक सिखाने के लिए निकल पड़ा। इधर दिल्ली के तख़्त पर बैठा शाह आलम द्वितीय अहमदशाह अब्दाली को सबसे ज्यादा खतरनाक समझ रहा था इसलिए उसने अब्दाली के पंजे से बचने के लिए मराठों को अपना संरक्षक बना लिया लेकिन 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अब्दाली ने मराठों को हरा दिया। पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की शक्ति को क्षति अवश्य पहुँची थी, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने फिर से अपनी शक्ति अर्जित कर ली। पानीपत की तीसरी लड़ाई के छः माह बाद ही बालाजी बाजीराव की मृत्यु हो गयी इसके बाद माधवराव प्रथम को पेशवा बनाया गया माधवराव ने रुहेलो ,राजपूतों और जाटों को आपने अधीन कर उत्तर भारत में  मराठों का वर्चस्व स्थापित किया इन सभी सैन्य अभियानों में सचान सैनिकों ने अपने युद्ध कौशल दिखाये सचान सैनिक सेनापति जैसे बड़े ओहेदे में नहीं थे इसलिए किसी ने भी इनकी वीरता का उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा अच्छी सैन्य शक्ति के बदौलत 1771 में माधवराव के शासन काल में मराठों ने निर्वासित मुग़ल बादशाह को दिल्ली की गद्दी में बैठा कर पेंशन भोगी बना दिया नवम्बर 1772 में माधवराव की क्षय रोग से मृत्यु के उपरांत माधवराव का छोटा भाई नारायणराव गद्दी पर बैठा जिसे उसके चाचा राघोबा ने ही मरवा दिया उसके बाद पेशवाओं के आपसी मन मुटाव व अंग्रेजो से देश द्रोही संधिया व असुरक्षा की भावना अनेक ऐसे कारण रहे जिनसे मराठा सेना में आगे सेवाएं देना सचानो ने उचित नहीं समझा और पवित्र गंगा और यमुना नदी के दोआबा व आसपास बस गये जिन सचानो ने मराठों की सेना नहीं छोड़ी वह भी सन 1818 में तृतीय मराठा युद्ध में हार जाने के बाद  बाजीराव के साथ  बिठूर आ , क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें रहने के लिये केवल उत्तर भारत के किसी स्थान का चुनाव करने की ही अनुमति दी थी. निर्वासित पेशवा के साथ आये  उनके पन्द्रह हजार संगी-साथी जिनमे से सचाणा के सैनिक  भी थे सब अपनी अपनी व्यवस्था जुटाने में लग गए  जिसको जो ठीक लगा वही बस गया और जीवन यापन करने लगा और अपनी पहचान के लिए यहाँ के समुदाय की तरह अपने नाम के साथ कुर्मी और कोष्ठक में  सचाणा लिखने लगे जो ब्रिटिश दस्तावेजों में आते आते सचान हो गया आज भी जो घरों में बहुत पुराना बर्तन है उनमे कुछ इस तरह लिखा मिलेगा  पुत्तुलाल (कुर्मी) सचान ब्रिटिशकाल के पहले तक सचानो की स्थिति खानाबदोसो जैसी थी  जब भारत में ब्रिटिश शासनकाल की शुरुआत हुई तब से सचानो ने अपने पुरुषार्थ से अपना स्थान बनाया ,अपने नए विचारों को स्वीकार किया सचान समुदाय कृषि के साथ जुड़ा हुआ है अतः वे आर्थिक व सामाजिक रूप से छिन्न भिन्न हो गए फिर भी समाज ने अपनी प्रगति जारी रखी परिणामतः आज लगभग हर व्यवसाय व क्षेत्र  में सचान नाम प्रमुख स्थान पर शोभायमान हो रहा है परदेश में भी अपना नाम बनाया उसका राज है श्रम करने में शर्म न होना , साहसिक और प्रमाणिकता ...आज हम स्वंम समीक्षा करे तो पाएंगे की सचान समाज के लोग स्वभाव से आक्रामक , जिद्दी , ब्राह्मणवाद के खिलाफ और पाखंड से दूर रहने वाले होते है यह सब गुण आने का कारण है कि इतिहास में ऐसे घटनाक्रम हुए जिसके कारण या गुण अनुवांशिक रूप से आते चले गए
सचानो के अशिक्षित रहने का कारण :
अशिक्षा की वजह थी ब्राह्मणवाद ..छत्रपति शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान मंडल में सात ब्राह्मण मंत्री थे. शिवाजी के बाद उनका साम्राज्य ब्राहमण पेश्वा के हाथ में चला गया देश में क्षत्रिय-राजपूत राजाओ को छोडकर अन्य गेर-ब्राह्मण लोगो को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था. वैदिक ब्राह्मण शास्त्रों और मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था के अनुसार शिक्षा मात्र जन्मजात ब्राह्मणों के लिए आरक्षित थी.
अंग्रेजी शासन के आने से ब्राह्मण पेशवा शासन समाप्त हो गया. ब्रिटिश शासन में सरकारी पाठशालाओ का आरंभ होने से ब्राह्मण के बच्चो के साथ गेर-ब्राह्मणों के बच्चे भी शिक्षा ग्रहण करने लगे फिर भी शिक्षा में पिछड़े ही रहे यही कारण है कि १८९२ से १९०४ के बीच भारतीय सिविल सेवाओ में सफलता पानेवाले १६ प्रतियाशियो में १५ ब्राह्मण थे.१९१४ में १२८ जिलाधिकारियों में से ९३ ब्राह्मण थे.यद्यपि 1850 में शुद्र वर्ण कि माली जाति के ज्योतिबा फूले ने उदार ब्राह्मण साथियों के सहयोग से शुद्रों-अतिशुद्रो के लिए पाठशाला आरम्भ की थी  24 सितम्बर 1873 में सत्यशोधक समाजनाम का संगठन शुरू हुआ जोकि स्व. राम स्वरुप वर्मा जी के अर्जक संघ विचारधारा के काफी समीप था २६, जुलाई १९०२ के दिन छत्रपति शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य की सेवाओ में ५०% स्थान शुद्र(ओबीसी) तथा अतिशुद्रों(एसटी-एससी) के लिए आरक्षित करने के आदेश जारी किए. इससे सत्तामें पिछड़े वर्गों की सामाजिक भागीदारी आरम्भ हुई इस तरह सारे देश में गेर- ब्राह्मण शुद्र-अतिशुद्र जातियों में १८७३ से १९२५ की समयावधि में सामाजिक समानता हेतु आन्दोलन चले .इन सभी आंदोलनों का कट्टर ब्राहमणों ने पूरा विरोध किया हमें अंग्रेजी शासन और महापुरुषों का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिनके कारण आज समाज को अवसर प्राप्त हुए  
स्वतंत्रता संग्राम में सचानो की भूमिका
सत्ता   और  साहित्य   में  हमारी  कमजोर सहभागिता के  कारण समाज में हमारी स्थिति अछूतो जैसी हो गयी है ऐसा लगता है कि हमारे पूर्वजो ने समाज के किसी भी गतिविधि  में भाग नहीं लिया जबकि हकीकत यह है हमारे सचानो ने भी क्रन्तिकारी दल बनाये थे और आजादी के पहले भी बहुत से महान कार्य किये है लेकिन उनकी गौरव गाथा लिखने वाला कोई नहीं था  इतिहास कार न होने के कारण स्वतंत्रता संग्राम में सचानो के  योगदान को नज़र अंदाज कर दिया गया ....फिर भी मन्मथनाथ गुप्त की पुस्तक “सिर पर कफ़न बांध कर “ में बहुत थोड़ा सा जिक्र है कि  सन १९३५ के आरंभ में फतेहगढ़ जेल जो की उस समय अंडमान जेल का नमूना मानी जाती थी , में क्रांतीकारी रेवतीसिंह  सचान व रणधीर सिंह सचान बंद थे  इस जेल का जेलर गंडासिंह बहुत ही जालिम था इस जेल में बहुत से और क्रांतिकारी कैदी बंद थे कानपूर के रमेश चंद्र गुप्त सी-श्रेणी के कैदियों के नेता थे रमेशचंद्र गुप्त को वीरभद्र पर हमला करने के कारण १० साल की कड़ी कैद की सजा मिली थी रेवतीसिंह  सचान व रणधीर सिंह सचान ने मिलकर एक क्रांतिकारी दल बनाया था इसके पहले कोई बड़ा कारनामा करते अंग्रेज पुलिस ने धर दबोचा उस समय इस तरह के बहुत से दल काम कर रहे थे जिनकामुख्य क्रांतिकारी दल से कोई सम्पर्क न था पूंजी के नाम पर उनके पास लक्ष्य के लिए अन्तहीन जोश के अलावा करीब करीब कुछ भी था
प्राप्त जानकारी के अनुसार यदि किसी के पास और जानकारी हो तो देने की कृपा करे
सचान समाज का गोत्र कश्यप है
वंश : सूर्यवंशी

मो.  09826018942
mail: idealsswi@gmail.com